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गौरी माता की स्तुति - जय जय गिरिबरराज किसोरी..

Gauri Mata ki stuti - Jai Jai Giriraj Kishori - Sita ji ki Gauri puja - Gauri poojan

 
जय गौरी माता

धर्म-आध्यात्म और भारत के व्रत-त्योहार

यहां माँ गौरी जी की जो स्तुति दी गई है, वह रामचरितमानस में वर्णित है, जब माता सीता जी ने भगवान् श्रीराम जी को अपने पति रूप में पाने के लिए माँ गौरी जी से प्रार्थना की थी. जब माता सीता जी ने पुष्प वाटिका में श्रीराम जी को पहली बार देखा... उन्हें उनसे प्रेम हो गया. लेकिन उन्होंने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई. वह सीधा माता गौरी जी के पास पहुंची और अपने मन की सारी बात उन्हीं से मन ही मन कह डाली. सीता जी ने माता गौरी जी से कहा-

जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनि दुति गाता॥


अर्थ-
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो! हे महादेवजी के मुख रूपी चंद्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामी कार्तिकजी की माता! हे जगत जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो!

रोचक तथ्य (Interesting fact)

नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥


अर्थ-
आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है. आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते. आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं. आप विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं.

दोहा - पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥


अर्थ-
पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है. आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते.

सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥


अर्थ-
हे (भक्तों को मुंहमांगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु भगवान् शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं.

मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥


अर्थ-
'मेरे मनोरथ को आप भलीभांति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं. इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया.' 

ऐसा कहकर जानकीजी ने मां गौरी के चरण पकड़ लिये.

माता सीता जी के मधुर स्वर और उनकी करुण पुकार सुनकर माता गौरी जी अति प्रसन्न हो गईं. उन्होंने अपने आशीर्वाद के रूप में अपने गले की पुष्पमाला सीता जी के गले में डाल दी और सीता जी से कहा-

बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥

अर्थ- गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं. उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई. सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया. गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-

सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥


अर्थ-
हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी. नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है. जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा.

छन्द -

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥


एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥


अर्थ-
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सांवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा. वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) हैं, तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं. इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं. तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं.

सोरठा- जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥


अर्थ-
गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता. सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएं अंग फड़कने लगे.
 

जय गौरी माता 

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