दीनदयाल नामक आदमी शहर की एक छोटी सी गली में रहता था। वह एक मेडिकल स्टोर चलाता था । सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी, आठ-दस साल का अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन सी दवाई कहाँ रखी है? वह इस व्यापार को बड़े ही शौक से करता था । उसकी दुकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकों को दवाइयां बड़ी सावधानी से देता था। पर वह एक नास्तिक था, भगवान के नाम से ही उसे चिढ़ थी।
घरवाले उसे बहुत समझाते, पर वह उनकी एक न सुनता था। खाली वक्त मिलने पर वह अपने दोस्तों के संग घर या दुकान में ताश खेलता था। एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने, दुकान में आए और अचानक बहुत जोर से बारिश होने लगी, बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था। दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे। तभी एक छोटा लड़का उसकी दूकान में दवाई लेने पर्ची लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था। दीनदयाल ताश खेलने में इतना मगन था कि बारिश में आए हुए उस लड़के पर उसकी नजर नहीं पड़ी।
ठंड़ से ठिठुरते हुए उस लड़के ने दवाई की पर्ची बढ़ाते हुए कहा- "साहब! मुझे ये दवाइयाँ चाहिए, मेरी माँ बहुत बीमार है.” बाहर सब दुकानें बारिश की वजह से बंद है। आपकी दुकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जाएगी। यह दवाई उनके लिए बहुत जरूरी है।
इस बीच लाइट भी चली गई और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी, उस लड़के की पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही दीनदयाल ने दवाई के उस पर्ची को हाथ में लिया, और दवाई देने को उठा, ताश के खेल को पूरा न कर पाने के कारण अनमने से अपने अनुभव से अंधेरे में ही दवाई की उस शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया। लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया।
दीनदयाल दूकान को जल्दी बंद करने की सोच रहा था। थोड़ी देर बाद लाइट आ गई और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाई की शीशी समझकर उस लड़के को दिया था, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा है, जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था, और ताश खेलने की धुन में उसने अन्य दवाइयों के बीच यह सोच कर रख दिया था कि ताश की बाजी के बाद फिर उसे अपनी जगह वापस रख देगा।
अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस साल की मेहनत पर मानो जैसे ग्रहण लग गया। वह सोचकर तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई उसने अपनी बीमार माँ को देगा, तो वह अवश्य मर जाएगी। तब दुकान का नाम??
लड़का भी बहुत छोटा होने के कारण उस दवाई को तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा। एक पल वह अपनी इस भूल को कोसने लगा और ताश खेलने की अपनी आदत को छोड़ने का निश्चय कर लिया पर यह बात तो बाद के बाद देखी जाएगी। अब क्या किया जाए? उस लड़के का पता ठिकाना भी तो वह नहीं जानता था। कैसे बचाया जाए? सच कितना विश्वास था उस लड़के की आंखों में। दीनदयाल को कुछ सूझ नहीं रहा था।
घबराहट और बेचैनी उसे घेरे हुए थी । घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा। पहली बार उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके पिता ने जिद्द करके भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर दुकान के उदघाटन के समय लगाई थी, पिता से हुई बहस में एक दिन उन्होंने दीनदयाल से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप में मानने और पूजने की मिन्नत की थी।
उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है। दीनदयाल को यह सारी बातें याद आने लगी।
उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने कर जोड़कर, सिमरन करते देखा था। उसने भी आज पहली बार कमरे के कोने में रखी उस धूल भरी कृष्ण की तस्वीर को देखा और आंखें बंद कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।
थोड़ी देर बाद वह छोटा लड़का फिर दुकान में आया। दीनदयाल को तो काटो तो खून नहीं, उसके पसीने छूटने लगे। वह बहुत अधीर हो उठा। पसीना पोंछते हुए उसने कहा- क्या बात है बेटा!! तुम्हें क्या चाहिए?
लड़के की आंखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- "बाबूजी...बाबूजी माँ को बचाने के लिए मैं दवाई की शीशी लिए भागता जा रहा था, घर के करीब पहुँच भी गया था, बारिश की वजह से ऑंगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिर कर टूट गई।"
"क्या आप मुझे वही दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी?"
"हाँ! हाँ ! क्यों नहीं?"
दीनदयाल ने राहत की साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई! पर उस लड़के ने दवाई की शीशी लेते हुए कहा, पर मेरे पास तो पैसे नहीं है, उस लड़के ने हिचकिचाते हुए कहा।
दीनदयाल ने तुरंत कहा, 'कोई बात नहीं, तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ। जाओ जल्दी करो, और हाँ!! अब की बार ज़रा संभल के जाना।' लड़का 'अच्छा बाबूजी' कहता हुआ खुशी से चल पड़ा।
अब दीनदयाल की जान में जान आई। भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरे तस्वीर को लेकर हाथों से पोंछने लगा और अपने सीने से लगा लिया। सोच रहा था कि अच्छा हुआ जो ये चित्र यही टंगा था।
अपने भीतर हुए इस परिवर्तन को वह पहले अपने घरवालों को सुनाना चाहता था। जल्दी से दुकान बंद करके वह घर को रवाना हुआ। उसकी नास्तिकता की घोर अंधेरी रात भी अब बीत गई थी और विश्वास की नई सुबह एक नए दीनदयाल की प्रतीक्षा कर रही थी।
सो बात सिर्फ एक इच्छा शक्ति की है कि आप खोज करना चाहते हैं? अगर खोज करना चाहते हैं और इस दिशा में एक कदम बढ़ाते हैं तो वह जरूर सौ कदम बढ़ाकर अपना रास्ता बताता है। अगर उसकी खोज की चाहत नहीं, तो वह भी अपने मिलन का रास्ता कभी नहीं बताएगा, क्योंकि वह किसी को भी अपने पर विश्वास करने के लिए विवश नहीं करता। समझदार व्यक्ति हर परिस्थिति से लाभ उठाता है, विश्लेषण करता है और नासमझ हर परिस्थिति से हानि ही उठाता है।
इसीलिए तो किसी ने कहा है कि "कौन कहता है कि भगवान दिखाई नहीं देते, एक वही तो दिखाई देते हैं, जब कुछ और नहीं दिखाई देता..."
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kya bhagwan hote hain, ishwar bhagwan ke hone ke saboot, science bhagwan ko kyon nahin manti hai, kya nastik hona galat hai
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