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भगवान् श्री विष्णु जी की स्तुति - शान्ताकारं भुजगशयनं...जय जय सुरनायक...

श्री लक्ष्मी नारायण जी की जय हो

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णम् शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तम् कमलनयनं योगिभिध्यार्नगम्यम्
वंदे विष्णुम् भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

अर्थ-
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनका वर्ण नीलमेघ के समान है, जिनके संपूर्ण अंग अतिशय सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ.

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:॥


अर्थ-
ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव को मेरा नमस्कार है.

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥


अर्थ-
हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) की प्रियस्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले, आप की लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता, ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीन दयालु हैं, वे (भगवान्) हम पर कृपा करें!

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुनगन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥


अर्थ-
हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अंतर्यामी), सर्वव्यापक परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय इंद्रियों से परे, पवित्रचरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता), आपकी जय हो! जय हो! इस लोक और परलोक के सब भोगों से विरक्त और मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृंद भी अत्यंत अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका दिन रात ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो!

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥


अर्थ-
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायता के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप बनाकर अथवा बिना किसी उपादान कारण के अर्थात स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें. हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं, हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बात छोड़कर उन (भगवान) की शरण आए हैं.

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहिं दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवहु सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥


अर्थ-
सरस्वती, वेद, शेषजी और संपूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें. हे संसार रूपी समुद्र के (मंथन के) लिए मंदराचलरूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यंत व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं.

दोहा- जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥

 रोचक तथ्य (Interesting fact)

 धर्म-आध्यात्म व्रत-त्योहार

सेहत की डायरी (1)

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